८ जुलाई को मॉनसून सत्र के दूसरे दिन जब सदन की कार्रवाई शुरु हुई तो मायावती दलितों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ हाल ही में हुई घटनाओं का मुद्दा उठाना चाहती थी । लेकिन उपसभापति की ओर से उन्हें महज तीन मिनट का समय दिया गया । मायावती अपने अधूरे भाषण के बार बार रोके जाने से भड़क गई और इस्तीफे की धमकी देकर सदन से उठकर चली गई । मायावती ने राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया । लेकिन उनका इस्तीफा स्वीकार हो, इसकी संभावना बहुत कम ही हैं । दरअसल संसद का नियम हैं कि कोई भी सदस्य किसी विस्तृत ब्यौरे के साथ इस्तीफा नहीं दे सकता । इस्तीफा महज एक लाइन का हो सकता हैं जिसमें कहा गया हो कि उक्त सदस्य अपने पद से इस्तीफा देना चाहता है जिसे स्वीकार कर लिया जाए । किसी प्रकार का विवरण तर्क या स्पष्टीकरण से रचा बसा इस्तीफा सदन में स्वीकार नहीं किया जा सकता । साल २००६ में सिद्धू के इस्तीफे का खारिज किया जाना और फिर नवम्बर २०१६ में कैप्टन अमरिंदर सिंह के इस्तीफे को इसी आधार पर निरस्त कर दिया गया था । दोनों सदस्यों को दोबारा से एक पंक्ति का इस्तीफा देना पड़ा था । तो फिर मायावती के इस इस्तीफे का निहितार्थ क्या हैं । इसका जवाब भी मायावती के भाषण और उनकी ओर से पेश किए गए इस्तीफे में ही निहित हैं । मायावती ने एक तीर से कई निशान करने की कोशिश की हैं । उन्होंने संदेश देने की कोशिश की कि सदन का सदस्य होते हुए भी उन्होंने दलितों के अत्याचार और हिंसा पर बोलने नहीं दिया गया । मायावती का यह गुस्सा कहीं न कहीं उन्हें फिर दलित एजेंड़े से जोड़ेगा । वह बड़ी चतुराई से सहारनपुर में हुई हिंसा और विरोध का क्रेडिट लेना चाहती हैं । वह भीम आर्मी से क्रेडिट लेते हुए राज्यसभा से इस्तीफा देकर यह दर्शाने की कोशिश में है कि वह दलितों के लिए इतना बड़ा त्याग भी कर सकती हैं।