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कांग्रेस-अध्यक्ष का चुनाव हो

कुछ वर्षों पहले तक कांग्रेस दुनिया की सबसे बड़ी पार्टियों में से एक हुआ करती थी लेकिन अब उसकी हालत क्या है ? अभी भी वह ही भाजपा के बाद एक मात्र अखिल भारतीय पार्टी है और कई प्रांतों में उसकी सरकारें भी हैं लेकिन उसके नेताओं और कार्यकर्त्ताओं की आजकल जो मनोदशा है, वह चलती रही तो उसकी हालत सोवियत रुस की कम्युनिस्ट पार्टी-जैसी हो जाने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। मुझे तो यह भी दिख रहा है कि यदि अगले संसदीय चुनाव में भाजपा फिर जीत गई तो कांग्रेस के ये बचे-खुचे मुख्यमंत्री अपने विधायकों समेत भाजपा में शामिल हो जाएंगे। कांग्रेस के केंद्र में आज शून्य पसरा हुआ तो है ही, कौनसा प्रांत ऐसा है, जहां कांग्रेस की सरकार है और उसके गले में आपसी दंगल का सांप नहीं लटका हुआ है ? अच्छे-खासे मुख्यमंत्रियों को गिराने में उन्हीं के साथी दिन-रात एक किए हुए हैं। इन मुख्यमंत्रियों में से ही कोई अखिल भारतीय नेता उभर सकता है लेकिन उनकी सारी ताकत अपनी कुर्सी बचाने में ही लगी हुई है। यदि उनमें से कोई या कोई अन्य उभरना भी चाहे तो क्या उभर सकता है ? नहीं, क्योंकि यह पार्टी, अब पार्टी नहीं रही, प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बन गई है। इसके नेताओं और कार्यकर्ताओं की स्थित घरेलू नौकर-चाकरों जैसी हो गई है। यदि सोनिया और राहुल इन पिंजरों के तोतों को उड़ने की इजाजत दे भी दें तो भी ये उड़ नहीं पाएंगे। इसीलिए मैं इस मां-बेटा-बेटी जोड़ी को दोष देना उचित नहीं समझता। देश को इधर थोड़ी राहत मिली है कि दो-तीन नेताओं ने सार्वजनिक रुप से नए अध्यक्ष की मांग कर दी है। लेकिन मैं पूछता हूं कि ये कांग्रेसी नेता अध्यक्ष के लिए आतंरिक चुनाव क्यों नहीं करवाते ? लाखों कार्यकर्ता जिसे स्वेच्छा से चुनें, वह ही अध्यक्ष क्यों नहीं बने ? आज भी देश के लगभग हर जिले में कांग्रेस जिंदा है। यदि कांग्रेस का अवसान हो गया तो भारतीय लोकतंत्र की यह बहुत गंभीर हानि होगी। जिस देश में एकदलीय तंत्र बन जाता है, वह देश बिना ब्रेक की मोटर कार बन जाता है, जैसे इटली, जर्मनी और रुस बन गए थे।

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