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मायामुक्त अखिलेश

समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का गठबंधन यदि चुनावी हार के बाद भी चलता रहता तो मुझे आश्चर्य होता। अब उत्तरप्रदेश की ये दोनों प्रमुख पार्टियां उप्र विधानसभा के 13 उप-चुनाव अलग-अलग लड़ेंगी और हो सकता है कि एक-दूसरे से टक्कर लेते हुए भी लड़ें। खुशी की बात यह है कि मायावती और अखिलेश ने एक-दूसरे पर कोई व्यक्तिगत प्रहार नहीं किया और आशा की कि उनके आपसी संबंध अच्छे बने रहेंगे। यह सही समय है, जब इन दोनों पार्टियों के नेताओं को सोचना चाहिए कि वे राजनीति में क्यों हैं ? क्या ये दोनों नेता जातिवाद की माया से मुक्त हो सकते हैं ? यह ठीक है कि अखिलेश अपने पिता मुलायमजी और मायावती अपने गुरु कांशीरामजी के कारण राजनीति में आए और उन्हें उनके कारण ही नेता बनने का मौका मिला लेकिन वे दोनों कैसी राजनीति कर रहे हैं ? दोनों जातिवादी राजनीति कर रहे हैं। एक पिछड़ों को अटकाए हुए हैं और दूसरी अनुसूचितों को पटाए हुए हैं। दोनों लोहिया और आंबेडकर की माला जपते हैं। शायद दोनों को पता नहीं है कि लोहिया और आंबेडकर, दोनों ही भारत से जातिवाद का समूल नाश चाहते थे। आंबेडकर की पुस्तक का नाम था — ‘‘जाति का समूल नाश’’। लोहियाजी ने भी ‘जात तोड़ो’ आंदोलन चलाया था। लेकिन अखिलेश और मायावती ने लोहिया और आंबेडकर को शीर्षासन करवा दिया है। उनकी जातिवादी राजनीति 2019 के चुनाव में मात खा गई है। मायावती की सीटें तो शून्य से 10 हो गईं लेकिन अखिलेश जहां के तहां रह गए। 50-60 सीटें सपना बनकर रह गईं। अखिलेश में अमित संभावनाएं हैं लेकिन अपने पिता और चाचा के अपमान का फल उप्र के यादवों ने उन्हें चखा दिया। पिछड़े और अनुसूचित लोग जरा ज्यादा परंपरावादी होते हैं। अमरसिंह के शब्दों में उन्हें अखिलेश की यह ‘औरंगजेबी अदा’ पसंद नहीं आई। इस समय उत्तरप्रदेश में अखिलेश से बढ़िया कोई अन्य नेता नहीं है। यदि वह लोहिया और आंबेडकर के मार्ग पर चलें और सप्तक्रांति के लिए जन-आंदोलन का रास्ता पकड़ें तो वे भारत ही नहीं, सारे दक्षिण एशिया के देशों में लोकप्रिय हो सकते हैं। इस समय पूरा दक्षिण एशिया किसी योग्य और महान नेता की प्रतीक्षा कर रहा है। जिस प्रदेश ने नेहरु, इंदिराजी और अटलजी जैसे नेता दिए हैं, वही शायद 21 वीं सदी के किसी बड़े नेता को उछालेगा। 

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