असम में बीजेपी के आधार को बढ़ाने के लिए पीएम नरेंद्र मोदी ने २०१६ में बांग्लादेशी घुसपैठियों को देश से बाहर निकालने का नारा दिया था । उनका यह नारा बीजेपी के पक्ष में गया और पार्टी ने पहली बार असम में अपने दम पर सरकार बनाई । दो साल बीते और बीजेपी ने वही फॉर्म्युला त्रिपुरा में आजमाया और नतीजा भी असम जैसी बंपर जीते के तौर पर देखने को मिला । इस राज्य में भी अवैध बांग्लादेशियों की बड़ी तादाद है, ऐसे में बीजेपी का यह नारा यहां के बांग्लाभाषी लोगों को लुभाने वाला था ।
आखिर बंगाली बहुत त्रिपुरा ने बीजेपी के इस नारे पर सकारात्मक रुख क्यों अपना ? इसका जवाब स्पष्ट है । केंद्र सरकार ने १९५५ के सिटिजनशिप ऐक्ट में धर्म के आधार पर संशोधन करने की बात कही ताकि अवैध घुसपैठिये कहलाने वाले इन लोगों को भारत की नागरिकता मिल सके । बीजेपी का यह प्रयास बहुसंख्यक समुदाय को लुभाने वाला था, जिसकी काट लेफ्ट की सरकार नहीं तलाश सकी । बांग्लादेश की सीमा सटे त्रिपुरा के बहुसंख्यक समुदाय ने बीजेपी के इन नारों को हाथोंहाथ लिया, जहां पूर्वी बंगाल यानी बांग्लादेश से आने वाले प्रवासियों से बड़ी संख्या हिंदुओं की है । १९४७ में देश के विभाजन और फिर १९७१ के युद्ध के दौरान हिंदू बंगाली शरणार्थियों की बड़ी आबादी त्रिपुरा आकर बस गई थी । इसके चलते यहां के मूल आदिवासी लोग अल्पसंख्यक हो गए है । २०११ की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक सूबे की आबादी में ३० फीसदी आदिवासी समुदाय के लोग हैं, जबकि ६६ फीसदी लोग गैर-आदिवासी बंगाली हिंदू हैं । बीजेपी यह जानती थी कि त्रिपुरा में आदिवासियों के लिए आरक्षित २० सीटों पर कब्जा जमाए बगैर लेफ्ट को यहां से उखाड़ना मुश्किल होगा । ऐसे में बीजेपी ने पीपल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा के साथ गठबंधन किया, जो अलग आदिवासी राज्य की मांग करता रहा है । इस तरह बीजेपी ने बंगाली हिंदुओं समेत आदिवासियों को भी साथ जोड़ने का काम किया ।