महाराष्ट्र की दलित सियासत नई करवट ले रही है । भीमा-कोरेगांव हिंसा के बाद पैदा हुए हालात में दलित विचारकों और कार्यकर्ताओं का मानना है कि यह बिहार के त्रिवेणी संघ प्रयोग की तरह है, जहां पिछड़ी जातियों के समुदाय ने उच्च जातियों के खिलाफ अपनी शक्ति को संगठित किया था । भीमा-कोरेगांव युद्ध के बारे में दक्षिणपंथी और दलित इतिहासकारों के अलग-अलग मत है । दलितों के लिए यह जातिवादी पेशवा शासकों के खिलाफ जंग थी, वहीं दक्षिणपंथी इतिहासकार इसे देसी शासकों की अंग्रेजोे से लड़ाई मानते है । दिल्ली के दलित विचारक और दलितों के मानवाधिकारों पर देशभर में मुहिम चलाने वाले पॉल दिवाकर का कहना है, भीमा-कोरेगांव को दो नजरिए से देखने की जररूरत है । अपनी ताकात बढ़ाने के लिए ब्रिटिश अजेंडे की पूर्ति के साथ ही कृषि कामगारों को एकजुट करना और अत्याचार के खिलाफ इसने लड़ने का एक रास्ता दिखाया । उन्होंने साथ ही कहा कि भीमा-कोरेगांव के बाद बदले घटनाक्रम महाराष्ट्र में एक त्रिवेणी संघ का निर्माण कर रहे है । बिहार में १९३० के दौर में ऊच्च जातियों से मुकाबला करने के लिए यादव-कोईरी-कुर्मी समुदाय का एक त्रिवेणी संघ बना था । इससे इलाके के सामाजिक और राजनीतिक समीकरण बदल गए थे । दिवाकर के मुताबिक अभी बीजेपी, मतंग और शिवसेना महार समुदाय का समर्थन हासिल करने में सफल रही हैं । वही जातीय सियासत को लेकर अब तक कांग्रेस का रुख साफ नहीं है । दलित विचारक का कहना है, मैं बदलते घटनाक्रम को किसी एक जाति के खिलाफ नहीं देखता हूं । यह उससे कही ऊपर है । महाराष्ट्र के दलित कार्यकर्ताओं का कहना है कि राज्य की दलित सियासत में खालीपन है ।