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कश्मीर : ट्रंप की मध्यस्थता ?

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने मेहमान इमरान खान से कह दिया कि नरेंद्र मोदी ने पिछली मुलाकात में उनसे निवेदन किया था कि वे कश्मीर के मामले में मध्यस्थता करें। ट्रंप के इस बयान ने हमारे विदेश मंत्रालय में भूकंप ला दिया है। रात देर गए उसने ट्रंप के दावे का खंडन किया। अब कैसे मालूम करें कि कौन सही है ? ट्रंप या हमारा विदेश मंत्रालय ? जहां तक ट्रंप का सवाल है, उन्हें अमेरिकी अखबारों ने ‘झूठों के सरदार’ की उपाधि दे रखी है। ‘वाशिंगटन पोस्ट’ के मुताबिक ट्रंप एक दिन में औसत 17 बार झूठ बोलते हैं। उन्होंने अपने दो साल के कार्यकाल में 8158 बार झूठ बोला है। कश्मीर पर मध्यस्थता की जो बात उन्होंने कही है, वह भी इसी श्रेणी में रखने की इच्छा होती है लेकिन इसमें एक अन्य संभावना भी हो सकती है। वह यह कि ट्रंप ने मोदी से पूछा हो कि आप कश्मीर-समस्या हल क्यों नहीं करते ? इस पर मोदी ने कह दिया हो कि आप भी कोशिश कर लीजिए। इसे ट्रंप ने मध्यस्थता समझ लिया हो। समझा न हो तो भी इमरान के मध्यस्थता के सुझाव के जवाब में उन्होंने मध्यस्थता शब्द का प्रयोग कर दिया। कश्मीर मसले पर 1948 में संयुक्तराष्ट्र संघ को बीच में डालकर नेहरुजी पछताए और बाद में जब भी कुछ विश्व नेताओं ने मध्यस्थता की पेशकश की, भारत ने रद्द कर दी। कुछ माह पहले नार्वे के पूर्व प्रधानमंत्री और पाकिस्तान के एक पूर्व राष्ट्रपति ने मुझे सुझाव दिया था कि मध्यस्थता का रास्ता अपनाया जाए। मैं खुद कुछ पहल करुं। मैंने अनौपचारिक बातचीत को तो ठीक बताया लेकिन औपचारिक तौर पर सरकारी मध्यस्थता को मुझे नकारना पड़ा। वैसे भी इस समय ट्रंप को अफगानिस्तान और तालिबान से अमेरिका का पिंड छुड़ाना है। इसीलिए उन्होंने इमरान को वाशिंगटन आने दिया है और उनसे वे लल्लो-चप्पो करना चाहेंगे। इमरान का यह सोच स्वाभाविक है कि जैसे अमेरिकी मध्यस्थता से तालिबान का मामला हल हो रहा है वैसे ही कश्मीर का मसला भी हल हो जाए लेकिन दोनों मामलों में बहुत फर्क है। मैं कश्मीर पर भारत-पाक संवाद के पक्ष में तो हूं लेकिन किसी बिचौलिए को अनावश्यक मानता हूं। ट्रंप के तेवर कितना ही भारत-प्रेम प्रकट करते हों लेकिन वे स्वयं इस योग्य नहीं हैं कि किसी भी अंतरराष्ट्रीय विवाद में वे मध्यस्थता कर सकें। 

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વિદેશી કલાકારો અને ટેકનિશ્યોનો સહકાર

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