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देश की दशा और दिशा तय करेगा बजट

एक कार्यकाल पूरा करने के बाद एक बार फिर पूर्ण बहुमत से बनी नरेन्द्र मोदी की दूसरी पारी का पहला बजट देश की दशा और दिशा और दशा तय करेगा। बजट का नाम सुनते है उम्मीद और आशंकाए दिलो दिमाग पर कौधने लगती है। कुछ लोगों को राहत की उम्मीद तो कुछ लोगों को जेब ढीली होने की चिन्ता रहती है। बेरोजगार रोजगार की आस में रहता है तो किसान को सब्सिडी और सुविधा की उम्मीद रहती है। सरकारी कर्मचारी इस उम्मीद में रहता है कि आयकर का स्लैब बढ़ेगा। उद्योग जगत से लेकर व्यापारी समाज की अपनी अपेक्षा होती है। जबकि आम आदमी मंहगाई को लेकर भयभीत रहता है। 125 करोड़ से अधिक की आबादी की इन्ही उम्मीदों को लेकर चंद दिनों बाद ही पाॅच जुलाई को केन्द्र सरकार 2019.20 का बजट पेश करेगी। निश्चित तौर पर देश की वर्तमान वित्त मंत्री सीतारण के कार्य करने की शैली अलग है। भारत की रक्षा मंत्री के रूप में अपने अनुभव का आभास देश को करा चुकी है। लेकिन इस बार उनके सामने देश में बेरोजगारी दर 45 साल के शीर्ष पर होने जैसी चुनौती है। जनता का बहुमत के साथ सरकार बनाना भी उनके लिए इस बजट में बड़े और कड़े फैसले लेने में बाधक हो सकता है। विकास दर पाॅच साल के सबसे निचले स्तर पर है। निश्चित तौर पर मांग में कमी आई है। ऐसे में वित्त मंत्री को सब को साधने के लिए कुछ बड़ और कड़े फैसले लेने ही पड़ेगें। कुल मिलाकर यह कहना गलत नही होगा कि मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का यह पहला बजट देश की दशा और दिषा तय करेगा। भारतीय अर्थव्यवस्था में ग्रामीण अर्थव्यवस्था का योगदान लगभग आधा है। अधिकांश नीति निर्माता इस गलतफहमी में हैं कि देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था कृषि आधारित है। जबकि तथ्य यह है कि कृषि ग्रामीण अर्थव्यवस्था का आधार तो है, लेकिन दो तिहाई ग्रामीण अर्थव्यवस्था गैर-कृषि गतिविधियों पर आधारित है। ग्रामीण क्षेत्र के लिए समावेशन महत्वपूर्ण है। चुनौती क्रियान्वयन की है। यह काम करने में कुल परिव्यय का एक फीसद से अधिक नहीं खर्च होगा। मैं वित्त मंत्री से उम्मीद करता हूं कि वह ग्रामीण अर्थव्यवस्था को विकसित करने के लिए सक्षम पारिस्थितिकी तंत्र को प्रोत्साहित और पोषित करने का काम करेंगी। निर्माण, अवसंरचना, चमड़ा और हथकरघा जैसे सहायक उद्योगों से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने वाले रोजगार पैदा हो सकते हैं। एक मजबूत ग्रामीण पारिस्थितिकी तंत्र उपभोग, आय और समान विकास को गति देने में सक्षम है। ग्रामीण विकास गरीबी को तीन गुना तेजी से कम करता है। सिर्फ इसी कार्य से ग्रामीण विकास दर को 12 फीसद तक बढ़ाया जा सकता है। यही नही हमारी पुरानी कार्यप्रणाली युवाओं को असफलता की ओर ले जाती है। हमारे लगभग 95 फीसद युवा अपने जीवन के सर्वश्रेष्ठ पल को नौकरी की तलाश में खपा देते हैं। यदि सरकार एक सक्षम उद्यमशील वातावरण तैयार करने के लिए कुछ सार्थक और स्थायी कदम उठायेगी, तो देश में रोजगार की समस्या नहीं रहेगी। उद्यमी बहुत ही विपरीत परिस्थितियों में छोटे स्तर से शुरुआत करते हैं और फिर नौकरशाही की बाधाओं का सामना करते हैं। स्वाभाविक रूप से, वे छोटे उद्यमी ही बने रहते हैं। इसमें ऋणदाताओं और कई अन्य कारकों की भूमिका होती है। स्वरोजगार का वातावरण बनाने और उद्यमियों को प्रोत्साहित तथा पोषित करने के लिए वित्त मंत्री को एक ‘उद्यमी कोष’ बनाना चाहिए। किसानों की दोगुनी आयरू किसानों की आय को दोगुना करने के लिए माननीय प्रधानमंत्री का समग्र प्रयास प्रशंसनीय है। कम होती आय के कारण किसानों की बदहाली बढ़ती जा रही है। ग्रामीण आय में 2014 के बाद से मंदी है, और वास्तविक मजदूरी 5 साल के निचले स्तर पर है। इसका एकमात्र समाधान कृषि आय में वृद्धि करना है। गरीबी मिटाना एक खर्चीला उपाय तो है ही, साथ ही इसके लिए एक ठोस नीति की भी जरूरत है। मैं इस बजट सबके लिए समान आय वाली किसी घोषणा की अपेक्षा कर रहा हूं। दरअसल हमारे सामने अक्षम सब्सिडी प्रणाली और बिना शर्त सबके लिए समान आय के विकल्प मौजूद हैं। अत्यधिक गरीबो के लिए बिना शर्त बेसिक इनकम सुनिश्चित करना हमारे समाज की पहुंच से बाहर नहीं हो सकती है। यदि सरकार अपर्याप्त तरीके से लक्षित और क्रियान्वित की गई एक हजार जन कल्याण वाली योजनाओं को खत्म नहीं करती है तो सरकार का रहना या नहीं रहना एक ही बात होगी।देश में सब्सिडी का बड़ा खेल चल रहा है। सब्सिडी को सही तरीके से जरूरतमंदों तक पहुंचाकर, अमीरों पर कर लगाने और पूंजीगत लाभ को कम करने जैसे कदमों से प्रति व्यक्ति प्रति माह एक हजार रुपये की यूनिवर्सल बेसिक आय का वहन किया जा सकता है। एक ऐसी अर्थव्यवस्था जहां सभी संसाधनों का 90 फीसद से अधिक धन चंद लोगों के पास है और जहां दिन-प्रतिदिन असमानता बढ़ती जा रही है, वित्त मंत्री को एक सकारात्मक तथा समावेशी बजट पेश करना चाहिए। अमीर किसान कोई टैक्स नहीं देता है। लाभांश और बायबैक के माध्यम से कॉर्पोरेट्स शेयरधारकों को चुपके से इनाम देते हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि असमानता बढ़ रही है। सरकार को इससे आगे जाने की जरूरत है। अच्छी तरह से योजना बनाने और उसे बेहतर तरीके से लागू करने की आवश्यकता है। वित्त मंत्री को शेष रूप से जटिल सामाजिक, स्वास्थ्य, शिक्षा और आर्थिक चुनौतियों से निपटने पर ध्यान केंद्रित करना हिए, जिसका आज हम सामना कर रहे हैं।
भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान महज 12 फीसद है, जबकि यह 50 फीसद लोगों को रोजगार देती है। असली समस्या यह है कि हमारे खेतों में जरूरत से ज्यादा किसान हैं और इनमें भी अधिकांश लोग आधे मन से खेती करते हैं, क्योंकि उनके पास करने के लिए और कुछ नहीं है। हमारे किसान दुखी हैं और यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आधी-अधूरी तैयारी वाली और लोकलुभावन सरकारी योजनाएं इस संकट को बढ़ाने का ही काम करती हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि किसी देष की सम्पतियों में हिस्सेदारी की असमानता वहाॅ के कई चीजों पर प्रतिकूल असर डालती है। इससे गरीबी उन्मूलन की दर कम होती हैै। महिला और पुरूष के साथ स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी मूलभूत जरूरतों में भी यह असमानरता पैर पसारती है। अपरानराध और हिंसा के रूप में समाजिक विकृतियाॅ भी सामने आती है। भारत के अर्थ का सबसे रोचक तथ्य यह है कि देष की दस फीसदी आबादी के पास 77.4 प्रतिशत सम्पत्ति है। सबसे बद्दतर आर्थिक हालत देश की 60 प्रतिशत आबदी केी है जिसके पास महज कुल सम्पत्ति का 4.7 प्रतिशत हिस्सा है। इस भारी असमानता को दूर करने के लिए कराधान और सामाजिक खर्च ही बड़ा उपाय है। अमीरों से ज्यादा कर वसूल कर गरीबों के कल्याण की धरातल से जुड़ी योजनाओं को आगे लाना होगा। भारत जीडीपी का औसतन 16.7 प्रतिशत ही टैक्स से जुटता है यह वाकई बहुत कम है। भारत की कराधान प्रणाली बहुत प्रगतिशील नही है। यह इस बाॅत पर भी गौर करना होगा कि भारत में शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा पर बहुत धन खर्च नही किया जाता जबकि अन्य कई देशों में इन मदों को प्राथमिकता पर रखा जाता है। सरकार की कमाई लक्ष्य से पीछे रह रही है। सुस्त अर्थ व्यवस्था में तेजी लिए व्यापक पैमाने पर खर्च जरूरी है। नाजूक स्थिति वाली अर्थ व्यवस्था में सरकार का करो से पीछे भागना भी जायज नही। ऐसे में संतुलन साधने की बड़ी चुनौती है।

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