बिहार में चमकी बुखार के बाद स्वास्थ्य सेवाओं की जो तस्वीर सामने आई है वह वाकई दूखदायी है। यह स्थिति केवल बिहार की नही बल्कि पूरे देश की सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की है। सरकार चिकित्सालयों का हाल इसलिए बुरा है कि एक हजार की क्षमता वाले चिकित्सालयों पर पाॅच हजार मरीज है, बाकी रही सही कसर स्वास्थ्य सेवाओं को ठेके पर देने के कारण हो रही है। बिहार ही क्या किसी भी राज्य मेें कभी कोई महामारी हो जाने में उस राज्य की सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं बेपटरी देखी जा चुकी है। उत्त्तर प्रदेश के गोरखपुर में भारी बच्चों की मौत के मामले की बाॅत करे या फिर अन्य राज्यों में होने वाली मौतों का मामला सरकार और सरकारी स्वास्थ्य सेवाए बुरी तरह हाॅफने लगती है। देश की स्थिति यह है कि जो निजी क्षेत्र में फैली स्वास्थ्य सेवाएं है वह सरकार के नियंत्रण से बिलकुल बाहर है। जिसकें चलते इन निजी चिकित्सालयों का लाभ मात्र पैसे वाले उठा पातेे है। सुप्रीम कोर्ट ने बिहार में रहस्यमय बुखार से करीब डेढ सौ बच्चों की मौत पर राज्य सरकार के साथ-साथ केंद्र सरकार से जवाब तलब करके बिल्कुल सही किया। यह इसलिए आवश्यक था, क्योंकि मुजफ्फरपुर और आसपास के इलाके में गंभीर किस्म के इंसेफलाइटिस की चपेट में आकर बच्चों के मरने का सिलसिला कायम रहने के बावजूद राज्य सरकार और साथ ही केंद्र सरकार की ओर से वैसे कदम नहीं उठाए गए जैसे अपेक्षित थे। बिहार के बच्चें जिस रहस्यमय बीमारी का शिकार बन रहे हैैं जिसे चमकी बुखार अथवा एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम के तौर पर परिभाषित किया जा रहा है। लेकिन अगर इस बीमारी से निपटने की प्रबल इच्छाशक्ति दिखाते हुए हर संभव उपायों का सहारा लिया गया होता तो शायद आज हालात कुछ दूसरे होते। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैैं कि एक सीमित दायरे में रहकर ही इस बीमारी से निपटने के प्रयास किए गए। आखिर इस बीमारी के कहर से बचने के लिए वैसे ही कदम क्यों नहीं उठाए जा सके जैसे इबोला अथवा निपाह वायरस से बचने के लिए उठाए गए? इससे इन्कार नहीं कि अतीत में भी मुजफ्फरपुर क्षेत्र में बारिश के पहले रहस्यमय बुखार ने अपना सिर उठाया और उसके चलते कई बच्चों की मौत भी हुई, लेकिन अतीत के उदाहरण देकर हाथ पर कामचलाऊ रवैया अपनाने का कोई मतलब नहीं था। यह सामान्य बात नहीं कि दर्जनों बच्चों की मौत के बाद भी शासन-प्रशासन के स्तर पर यही रेखांकित करने की कोशिश हुई कि यहां तो ऐसा होता ही रहता है।हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार को भी नोटिस जारी कर दिया है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि इस बार गोरखपुर और आसपास के इलाके में एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम अथवा जापानी बुखार का वैसा कहर नहीं दिखा जैसा कुछ वर्षों पहले तक दिखता था। समझना कठिन है कि बिहार सरकार उत्तर प्रदेश सरकार के तौर-तरीकों से कोई सीख क्यों नहीं ले सकी? सवाल यह भी है कि मुजफ्फरपुर के हालात को लेकर केंद्र सरकार समय रहते सक्रिय क्यों नहीं हुई? एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम के लिए गंदगी और कुपोषण के अतिरिक्त अन्य अनेक कारण जिम्मेदार बताए जा रहे हैैं। निरूसंदेह कई बार किसी बीमारी के मूल कारणों का पता लगाना मुश्किल होता है, लेकिन अगर उससे बचाव और उपचार के बेहतर उपाय किए जा सकें तो हालात काबू करने में मदद मिलती है।
बिहार और केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट के सवालों का चाहे जो जवाब दें,लेकिन यह सच है कि मुजफ्फरपुर का श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज अस्पताल पर्याप्त संसाधनों से लैस नहीं दिखा। ऐसा तब हुआ जब यह उत्तरी बिहार का प्रमुख मेडिकल कॉलेज है और पिछले कई वर्षों से एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम के मरीजों का गवाह बनता रहा है। संसाधनों के अभाव का सामना कर रहा यह मेडिकल कॉलेज अस्पताल देश में सरकारी स्वास्थ्य ढांचे की खराब स्थिति को ही बयान करता है। आवश्यक केवल यही नहीं कि बिहार में बच्चों की मौत का सिलसिला थमे, बल्कि यह भी है कि केंद्र और राज्य सरकारी स्वास्थ्य ढांचे को दुरुस्त करने के लिए कमर कसें।सुप्रीम कोर्ट ने बिहार में रहस्यमय बुखार से करीब डेढ सौ बच्चों की मौत पर राज्य सरकार के साथ-साथ केंद्र सरकार से जवाब तलब करके बिल्कुल सही किया। यह इसलिए आवश्यक था, क्योंकि मुजफ्फरपुर और आसपास के इलाके में गंभीर किस्म के इंसेफलाइटिस की चपेट में आकर बच्चों के मरने का सिलसिला कायम रहने के बावजूद राज्य सरकार और साथ ही केंद्र सरकार की ओर से वैसे कदम नहीं उठाए गए जैसे अपेक्षित थे।बिहार के मुजफ्फरपुर में चमकी बुखार (इंसेफेलाइटिस) से 150 से अधिक बच्चों की मौत के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और बिहार सरकार से सात दिन में जवाब मांगा है। नोटिस जारी करते हुए अदालत ने कहा कि हर बार मौतें जारी नहीं रह सकतीं, हमें जवाब चाहिए। कोर्ट ने यूपी सरकार को भी हलफनामा दाखिल करने को कहा है।चिकित्सा सुविधाओं की जानकारी दी जाएरूजस्टिस संजीव खन्ना और बीआर गवई की अवकाशकालीन पीठ ने बिहार सरकार को चिकित्सा सुविधाओं पोषण एवं स्वच्छता के बारे में हलफनामा देने का निर्देश दिया है। इस मामले में अब 10 दिन बाद सुनवाई की जानी है। अधिवक्ता मनोहर प्रताप ने याचिका दाखिल कर बताया हैकि इस बीमारी से 126 से अधिक बच्चों की मौत हो चुकी है। इनमें अधिकतर की उम्र एक से दस साल है।यह महामारी बिहार-यूपी और केंद्र की लापरवाही का परिणाम है। अस्पतालों में डॉक्टर और चिकित्सा सुविधाओं का अभाव है। यही वजह हैकि हर साल सैकड़ों बच्चे इस बीमारी के शिकार हो जाते हैं।गोरखपुर का भी जिक्र भी याचिका में इस बीमारी का पिछले साल केंद्र रहे यूपी के गोरखपुर का भी उल्लेख है। आग्रह किया गया है कि गोरखपुर में इसकी रोकथाम व प्राथमिक उपचार के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए हर संभव कदम उठाने का निर्देश दिया जाए। पीठ ने यूपी सरकार को इस बीमारी से राज्य में हुई मौतों के बारे में हलफनामा दाखिल करने का भी निर्देश दिया। .पटना हाईकोर्ट ने स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों को कड़ी फटकार लगाई। कहा कि अधिकारियों की लापरवाही के कारण राज्य में स्वास्थ्य सेवा बदहाल है। गरीब जनता के पास पैसा नहीं है कि वह बड़े अस्पताल का रुख कर सके।कोर्ट ने कहा कि सरकारी अस्पतालों का हाल यह है कि इलाज की जगह उन्हें मौत मिलती है। स्वीकृत पद रिक्त हैं। इन पदों पर भर्ती नहीं की जा रही है और कर्मियों को ठेके पर रखा जा रहा है। सरकार बड़े-बड़े दावे करती हैं लेकिन हकीकत कुछ और बयां कर रही है। कोर्ट ने कहा कि विभाग के सचिव कोर्ट में आकर बताते हैं कि स्वास्थ्य सेवा की बेहतरी के लिए सरकार क्या-क्या कर रही है लेकिन कुछ माह के भीतर ही उनका तबादला कर दिया जाता है, जिससे स्थिति जस की तस बनी हुई है। कोर्ट ने स्वास्थ्य विभाग के प्रधान सचिव को चेतावनी देते हुए कहा कि अदालती फैसले का पालन नहीं किया गया तो अगली तारीख पर विभाग पर 50 हजार रुपये का आर्थिक दंड लगाया जाएगा।इस मामले में देश के सर्वोच्च अदालत ने पोषण और स्वच्छता को स्वास्थ्य सेवा के बराबर ही महत्व दिया है, जो इंसेफलाइटिस के मामले में हुए सामाजिक सर्वेक्षण को देखते हुए काफी अहमियत रखता है। मुजफ्फरपुर जिले में पिछले दिनों जब इंसेफलाइटिस से ग्रसित 289 बच्चों के परिवारों का सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण किया गया, तो पता चला कि इनमें से 280 बच्चों के परिवार गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करने वाले हैं। जाहिर है, इन बच्चों को पर्याप्त पोषण भी शायद ही मिलता हो और वे उस स्वच्छता से भी दूर ही होंगे, जिसे चिकित्सा की भाषा में हाईजीन कहा जाता है। जाहिर है, मुजफ्फरपुर में चुनौती सिर्फ स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने की नहीं, उससे कहीं ज्यादा बड़ी है।जहां तक सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा का मामला है, तो इस दिशा में बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है। इंसेफलाइटिस एक जटिल रोग है और मुजफ्फरपुर में फैले इस रोग के बारे में अभी कुछ ठीक से पता भी नहीं, इसके कारणों को लेकर ही विशेषज्ञों में मतभेद दिख रहे हैं। इसे छोड़ दें, तो हमारे पास जो सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा है, वह दस्त, मलेरिया और डेंगू जैसे सामान्य रोगों के रोगियों को ही पूरी तरह नहीं बचा पाती। जो स्वास्थ्य सेवा सामान्य स्थिति में मरीजों को पूरा इलाज देने में सक्षम नहीं, उससे यह उम्मीद कैसे की जाए कि वह महामारी जैसी आपात स्थितियों में लोगों का इलाज करने में कारगर साबित होगी? इस सेवा को मजबूत बनाना ही सबसे बड़ी चुनौती है।
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