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सर्वोच्च न्यायालय ने खुद उठाया समान नागरिक संहिता का मामला…!

देश के सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर समान नागरिक संहिता का चर्चा करके इस बात को बल दे दिया है कि देश में सभी जाति धर्म के लोगों के लिए एक कानून होना चाहिए। जी हां गोवा के एक परिवार की संपत्ति के बंटवारे पर फैसला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, “भारत में अब तक यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया। जबकि संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 44 में नीति निदेशक तत्व के तहत उम्मीद जताई थी कि भविष्य में ऐसा किया जाएगा। यूनिफॉर्म सिविल कोड का ये मतलब कतई नहीं है कि इसकी वजह से विवाह मौलवी या पंडित नहीं करवाएंगे।

ये परंपराएं बदस्तूर बनी रहेंगी। नागरिकों के खान-पान, पूजा-इबादत, वेश-भूषा पर इसका कोई असर नहीं होगा। ये अलग बात है कि धार्मिक कट्टरपंथी इसको सीधे धर्म पर हमले की तरह पेश करते रहे हैं। संविधान बनाते वक्त समान नागरिक संहिता पर काफी चर्चा हुई. लेकिन तब की परिस्थितियों में इसे लागू न करना ही बेहतर समझा गया. इसे अनुच्छेद 44 में नीति निदेशक तत्वों की श्रेणी में जगह दी गई. नीति निदेशक तत्व संविधान का वो हिस्सा है जिनके आधार पर काम करने की सरकार से उम्मीद की जाती है।

हम बता दें कि समान नागरिक संहिता यानी यूनिफॉर्म सिविल कोड का मतलब है विवाह, तलाक, बच्चा गोद लेना और संपत्ति के बंटवारे जैसे विषयों में सभी नागरिकों के लिए एक जैसे नियम। दूसरे शब्दों में कहें तो परिवार के सदस्यों के आपसी संबंध और अधिकारों को लेकर समानता। जाति-धर्म-परंपरा के आधार पर कोई रियायत नहीं। इस वक़्त हमारे देश में धर्म और परंपरा के नाम पर अलग नियमों को मानने की छूट है। जैसे किसी समुदाय में बच्चा गोद लेने पर रोक है। किसी समुदाय में पुरुषों को कई शादी करने की इजाज़त है। कहीं-कहीं विवाहित महिलाओं को पिता की संपत्ति में हिस्सा न देने का नियम है। यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू होने पर किसी समुदाय विशेष के लिए अलग से नियम नहीं होंगे।

1954-55 में भारी विरोध के बावजूद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू हिन्दू कोड बिल लाए। इसके आधार पर हिन्दू विवाह कानून और उत्तराधिकार कानून बने। मतलब हिन्दू, बौद्ध, जैन और सिख समुदायों के लिए शादी, तलाक, उत्तराधिकार जैसे नियम संसद ने तय कर दिए। मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदायों को अपने-अपने धार्मिक कानून यानी पर्सनल लॉ के आधार पर चलने की छूट दी गई। ऐसी छूट नगा समेत कई आदिवासी समुदायों को भी हासिल है। वो अपनी परंपरा के हिसाब से चलते हैं।

अक्टूबर 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने ईसाई तलाक कानून में बदलाव की मांग करने वाली याचिका सुनते हुए केंद्र के वकील से कहा था, “देश में अलग अलग पर्सनल लॉ की वजह से भ्रम की स्थिति बनी रहती है। सरकार चाहे तो एक जैसा कानून बना कर इसे दूर कर सकती है। क्या सरकार ऐसा करेगी? अगर आप ऐसा करना चाहते हैं तो आपको ये कर देना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद सरकार ने लॉ कमीशन को मामले पर रिपोर्ट देने के लिए कहा था।

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