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विदेश नीति पर नए सुझाव

दिल्ली के ‘सेंटर फार पालिसी रिसर्च’ ने अभी एक महत्वपूर्ण शोध-पत्र प्रकाशित किया है, जो हमारी वर्तमान भारतीय सरकार के लिए उत्तम दिशाबोधक हो सकता है। इस सेंटर की स्थापना हमारे सम्माननीय मित्र डाॅ. पाई पणंदीकर ने की थी। यह शोध-केंद्र मौलिक शोध और निर्भीक विश्लेषण के लिए जाना जाता है। इस सेंटर ने अभी जो शोध-पत्र प्रकाशित किया है, उसके रचनाकारों में भारत के अत्यंत अनुभवी कूटनीतिज्ञ, सैन्य अधिकारी और विद्वान लोग हैं। उनका मानना है कि भारत की विदेश नीति पर हमारी आंतरिक राजनीति हावी हो रही है। वर्तमान सरकार बहुसंख्यकवाद (याने हिंदुत्व), ध्रुवीकरण और विभाजनकारी राजनीति चला रही है ताकि अगले चुनाव में उसके थोक वोट पक्के हो जाएं। इस समय भारतीय लोकतंत्र जितने संकीर्ण मार्ग पर चल पड़ा है, पहले कभी नहीं चला। भारतीय विदेश नीति पर हमारी आंतरिक राजनीति का अंकुश कसा हुआ है। इन शोधकर्ताओं का इशारा शायद पड़ौसी देशों के शरणार्थियों में जो धार्मिक भेदभाव का कानून बना है, उसकी तरफ है। इन्होंने इस बात पर भी जोर दिया है कि ‘पड़ौसी राष्ट्र पहले’ की नीति गुमराह हो चुकी है। लगभग सभी पड़ौसी राष्ट्रों से भारत के संबंध असहज हो गए हैं। चीन का मुकाबला करने के लिए भारत ने चौगुटे (क्वाड) में प्रवेश ले लिया है लेकिन क्या भारत महाशक्ति अमेरिका का मोहरा बनने से रूक सकेगा? शीतयुद्ध के ज़माने में सोवियत संघ के साथ घनिष्ट संबंध बनाए रखते हुए भी किसी गुट में भारत शामिल नहीं हुआ था। वह गुट-निरपेक्ष आंदोलन का अग्रणी नेता था लेकिन अब वह इस अमेरिकी गुट में शामिल होकर क्या अपनी ‘सामरिक स्वायत्तता’ कायम रख सकेगा ? इन विद्वानों द्वारा उठाया गया यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है। इन्होंने दक्षेस (सार्क) के पंगु होने पर भी सवाल उठाया है, जब से (2014) पाकिस्तान सार्क का अध्यक्ष बना है, भारत ने सार्क सम्मेलन का बहिष्कर कर रखा है। दक्षिण एशिया के करोड़ों लोगों की जिंदगी में रोशनी भरने के लिए भारत को शीघ्र ही कोई पहल करनी चाहिए। मैं तो इसलिए सरकारों से अलग सभी देशों की जनता का एक नया संगठन, जन-दक्षेस, बनाने का पक्षधर हूं। ये विद्वान पाकिस्तान से बात करने का समर्थन करते हैं। मैं समझता हूँ कि अफगान-संकट को हल करने में भारत-पाक संयुक्त पहल काफी सार्थक सिद्ध हो सकती है। इसी तरह अमेरिका के इशारे पर चीन से मुठभेड़ करने की बजाय बेहतर यह होगा कि हम चीन के साथ ‘कोलूपीटिव माॅडल’ याने सहयोग और प्रतिस्पर्धा की विधा अपनाएँ तो बेहतर होगा। जब तक भारत की आर्थिक शक्ति प्रबल नहीं होगी, उसके पड़ौसी भी चीन की चौपड़ पर फिसलते रहेंगे।

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