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प्रेम-विवाह सबसे ऊपर

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जज विवेक चौधरी बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने अपने फैसले से उस कानूनी बाधा को दूर कर दिया है, जो अंतर्धार्मिक या अन्तरजातीय विवाहों के आड़े आती है। 1954 के विवाह के विशेष कानून की उस धारा को अदालत ने रद्द कर दिया है, जिसमें उक्त प्रकार की शादी करनेवालों को 30 दिन पहले अपनी शादी की सूचना को सार्वजनिक करना जरुरी था। यदि किसी हिंदू और मुसलमान या सवर्ण-दलित के बीच शादी हो तो उसकी सूचना अब तक अखबारों में छपाना या सरकार को सूचित करना जरुरी होता था। लेकिन यह अब जरुरी नहीं होगा। यह मामला अदालत में इसलिए आया था कि एक मुस्लिम लड़की ने एक हिंदू युवक से शादी कर ली थी। मुस्लिम लड़की के पिता ने अदालत में याचिका लगाई कि इस शादी की खबर किसी को कानोंकान भी नहीं लगी और दोनों ने गुपचुप शादी कर ली। इसे अवैध घोषित किया जाए। अदालत ने 30 दिन की पूर्व-सूचना के इस प्रावधान को रद्द कर दिया और कहा कि शादी निजी मामला है। इसका ढिंढोरा पहले से पीटना क्यों जरुरी है ? उसे अनिवार्य बनाना मूलभूत मानव अधिकारों का उल्लंघन है। यही बात लव-जिहाद के उन कानूनों पर भी क्यों लागू नहीं की जाती, जो उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश आदि की सरकारें बना रही हैं ? सर्वोच्च न्यायालय स्वयं क्यों नहीं इस समस्या का संज्ञान लेता है ? 1954 के कानून में 30 दिन का नोटिस है और लव जिहाद कानून में 60 दिन का है। इसी परेशानी की वजह से लोग पहले अपना धर्म-परिवर्तन कर लेते हैं और फिर शादी कर लेते हैं ताकि उन्हें किसी अदालत-वदालत में जाना न पड़े। दूसरे शब्दों में लव-जिहाद कानून की वजह से अब धर्म-परिवर्तन को बढ़ावा मिलेगा याने यह कानून ऐसा बना है, जो शादी के पहले धर्म-परिवर्तन के लिए वर या वधू को मजबूर करेगा। ऐसी शादियाँ वास्तव में प्रेम-विवाह होते हैं। प्रेम के आगे मजहब, जाति, रंग, पैसा, सामाजिक हैसियत- सब कुछ छोटे पड़ जाते हैं। शादी के बाद भी जो जिस मजहब या जात में पैदा हुआ है, उसे न बदले तो भी क्या फर्क पड़ता है ? हमें ऐसा हिंदुस्तान बनाना है, जिसमें लोग मजहब और जात के तंग दायरों से निकलकर इंसानियत और मोहब्बत के चौड़े दायरे में खुली सांस ले सकें।

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