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भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार है

ट्रांसपेरेन्सी इन्टरनेशनल की ताजा रपट के अनुसार एशिया में सबसे अधिक भ्रष्टाचार यदि कहीं है तो वह भारत में है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को इससे गंदा प्रमाण-पत्र क्या मिल सकता है ? इसका अर्थ क्या हुआ ? क्या यह नहीं कि भारत में लोकतंत्र या लोकशाही नहीं, नेताशाही और नौकरशाही है ? भारत में भ्रष्टाचार की ये दो ही जड़े हैं। पिछले पांच-छह साल में नेताओं के भ्रष्टाचार की खबरें काफी कम आई हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि भारत की राजनीतिक व्यवस्था भ्रष्टाचार मुक्त हो गई है। उसका भ्रष्टाचार मुक्त होना असंभव है। यदि नेता लोग रिश्वत नहीं खाएंगे, डरा-धमकाकर पैसा वसूल नहीं करेंगे और बड़े सेठों की दलाली नहीं करेंगे तो वे चुनावों में खर्च होनेवाले करोड़ों रु. कहां से लाएंगे ? उनके रोज खर्च होनेवाले हजारों रु. का इंतजाम कैसे होगा ? उनकी और उनके परिवार की ऐशो-इसरत की जिंदगी कैसे निभेगी ? इस अनिवार्यता को अब से ढाई हजार साल पहले आचार्य चाणक्य और यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने अच्छी तरह समझ लिया था। इसीलिए चाणक्य ने अपने अति शुद्ध और सात्विक आचरण का उदाहरण प्रस्तुत किया और प्लेटो ने अपने ग्रंथ ‘रिपब्लिक’ में ‘दार्शनिक राजा’ की कल्पना की, जिसका न तो कोई निजी परिवार होता है और न ही निजी संपत्ति। लेकिन आज की राजनीति का लक्ष्य इसका एक दम उल्टा है। परिवारवाद और निजी संपत्तियों के लालच ने हिंदुस्तान की राजनीति को बर्बाद करके रख दिया है। उसको ठीक करने के उपायों पर फिर कभी लिखूंगा लेकिन नेताओं का भ्रष्टाचार ही नौकरशाहों को भ्रष्ट होने के लिए प्रोत्साहित करता है। हर नौकरशाह अपने मालिक (नेता) की नस-नस से वाकिफ होता है। उसे उसके हर भ्रष्टाचार का पता या अंदाज होता है। इसीलिए नौकरशाह के भ्रष्टाचार पर नेता उंगली नहीं उठा सकता है। भ्रष्टाचार की इस नारकीय वैतरणी के जल का सेवन करने में सरकारी बाबू और पुलिसवाले भी पीछे क्यों रहें ? इसीलिए एक सर्वेक्षण से पता चला था कि भारत के लगभग 90 प्रतिशत लोगों के काम रिश्वत के बिना नहीं होते। इसीलिए अब से 60 साल पहले इंदौर में विनोबाजी के साथ पैदल-यात्रा करते हुए मैंने उनके मुख से सुना था कि आजकल भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार है। हमारे नेताओं और नौकरशाहों को गर्व होना चाहिए कि एशिया में सबसे अधिक शिष्ट (भ्रष्ट) होने की उपाधि भारत को उन्हीं की कृपा से मिली है।

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